साठ के दशक की हिन्दी कविता जनमानस में रची बसी थी


साठ के दशक को याद करता हूं तो एक सुखद अनुभूति होने लगती है, देश को आजाद हुए कुछ ही वर्ष हुए थे, नवनिर्माण का दौर चल रहा था। राष्ट्रीयता के भाव हर जगह मुखरित थे। भूख, गरीबी और शिक्षा का अभाव होते हुए भी जन-जन में देश प्रेम की भावना हिलोरे ले रही थी। राष्ट्रकवि मैथिली शरण गुप्त की  'भारत भारती' में लिखी यह पंक्तियां जनमानस में घर कर गयी थी।
हम कौन थे क्या हो गए हैं
और क्या होंगे अभी,
आओ विचारें आज मिलकर
ये समस्यायें सभी।
यह दौर अपने में अद्वितीय था, किसी भी राष्ट्रीय आयोजन में किसी को कोई आमन्त्रण नहीं भेजा जाता था, लोगों में इतना उत्साह था कि किसी भी राष्ट्रीय पर्व पर सम्मिलित होना हर कोई अपना कर्तव्य समझता था, आजादी की जो एक लम्बी लड़ाई हमने लड़ी और हमारे  और हमारे राष्ट्रीय नायकों का जो आर्दश और चरित्र हमारे सामने था सम्भवतः यह उसका परिणाम था, 'हल्दी घाटी' के कवि श्यामनारायण पाण्डेय ने तभी यह सिंह गर्जना की थी।
सामने पहाड़ हो
सिंह की दहाड़ हो
शेषनाग हो अड़ा
क्यों न काल हो खड़ा
तुम अमर बढ़े चलो
तुम अजर बढ़े चलो
तुम निडर बढ़े चलो
आन पर चढ़े चलो
अपनी आन-बान-शान पर मर मिटने की प्रेरणा देने वाली इन पंक्तियों को तत्कालीन थल सेना अध्यक्ष जनरल के.एम. करिअप्पा ने जब सुना तो उन्होनें कहा था कि यह गीत भारतीय सेना का प्रयाण गीत होना चाहिए। वे कवि की सम्पूर्ण कविता से अत्यन्त प्रभावित हुए थे। कवि सम्मेलनों के मंच पर जब प्रख्यात कवि श्यामनारायण पाण्डे दहाड़ते थे तो श्रोता सिहर उठते थे, लगता था आंखों के सामने हल्दी घाटी का यु( सजीव हो उठा है।
साठ के दशक का काल हिन्दी काव्य धारा का स्वर्णिम काल रहा है। इस दौर के कवियों ने देश प्रेम, राष्ट्रनिर्माण देश की भावी पीढ़ी के सामने एक आदर्श और चरित्र प्रस्तुत किया। इस काल में अनगिनत कवियों ने हिन्दी साहित्य को अद्भुत रचनायें दी, इन रचनाओं का तत्कालीन युवा पीढ़ी पर इतना असर हुआ कि उस समय के विद्यालय, महाविद्यालय और विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाले छात्र अक्सर विद्यालय परिसरों में इन कविताओं के प्रायः गुनगुनाया करते रहते थे।
नत हुए बिना जो अश निघात सहती है
स्वाधीन जगत में वही जाति रहती है
वीरत्व छोड़ पर का मत चरण गहो रे
जो पड़े आन खुद ही सब आग सहो रे
राष्ट्रकवि दिनकर एक युगदृष्टा महर्षि तुल्य महाकवि थे जिन्होंने जीवन साधना में जीवन के लिए अनवरत मंगल विधान और उस प्रकार के तत्वों की खोज में ही अपना सारा जीवन आहूत कर दिया। स्वावलम्बी और उदग्र राष्ट्र ही उनकी समूची साधना का लक्ष्य था।
महाकवि दिनकर की हुंकार उस समय के जन-जन के अधरों पर थी यह ललकार निष्प्राण हुए मानव में भी प्राण फूंक देती थी।
 छोड़ो मत अपनी आन शीश कट जाये
 मत झुको अनय पर भले व्योम फट जाये
 दो बार नहीं यमराज कष्ट धरता है
 मरता है जो एक ही बार मरता है
  तुम स्वयं मरण के मुख पर चरण धरो रे
  जीना है तो मरने से नहीं डरो रे
कौन नहीं दोहराना चाहेगा इन पंक्तियों को बार-बार हमें मृत्यु का संधान करना है और नये सवेरे की तलाश में रास्ते बनाने हैं। इसमें वही यो(ा सफल होता है जो अपने भाग्य की रेखायें स्वयं खींचता है।
 आंधियां नहीं जिनमें उमंग भरती हैं
 छातियां जो संगीनों से डरती हैं
 शोणित के बदले जहां अश्रु बहता है
 वह देश कभी स्वाधीन नहीं रहता है
  पकड़ो अयाल अन्धड़ पर उछल पड़ो रे
  किरिचों पर अपने तन का चाम मढ़ो रे
हमें विदेशी शासन से शक्ति मिली और इस बीच देश में परिवर्तन झंझावत की गति से आये, स्वाधीनता संघर्ष के सेनानियों के सपने साकार करने सुविख्यात कवि स्व. रामावतार त्यागी के गीत की पंक्तियां याद आ रही हैं।
 तन भी समर्पित, मन भी समर्पित
 और यह जीवन समर्पित
 चाहता हूं देश की धरती
 तुझे कुछ और भी दूं
यह राष्ट्र प्रेम की एक उत्कृष्ट अभिव्यक्ति है, जो भारत को एक मजबूत आधार प्रदान करती है। हमने अपनी आजादी को कायम रखने की सौगन्ध ली हैं इसलिए कवि गिरजा कुमार माथुर ने कहा था -
 आज जीत की रात/पहरूए सावधान रहना
 खुले देश के हार/अचल दीपक समान रहना
वहीं गोपाल सिंह नेपाली ने कामना की थी -
 'आज हार द्वार पर/ यह दिया बुझे नहीं/ यह निशीथ का दिया/ ला रहा विहान है'
कवि बलबीर सिंह रंग की चेतावनी थी- 'ओ विप्लव के थके साथियों/विजय मिली विश्राम न समझो'।
इस दौर के कवियों ने जहां एक ओर राष्ट्र भक्ति के तराने गाये वहीं दूसरी ओर राष्ट्रोन्नति के लिए श्रम, एकता, अनुशासन, भूख, गरीबी, असमानता और शिक्षा को भी रेखांकित किया। वे अपनी कविताओं के माध्यम से राष्ट्रनायकों को आगाह करते रहे इन महान कवियों को जिन्हें हम आज भी आदर याद करते हैं, उनमें हैं- मैथिलीशरण गुप्त, सुमित्रा नंदन पंत, रामधारी सिंह दिनकर, माखनलाल चतुर्वेदी, श्यामनारायण पाण्डेय, सोहनलाल द्विवेदी, शिव मंगल सिंह सुमन, नरेन्द्र शर्मा, हरिवंश राय बच्चन, गोपाल दास नीरज, बालकृष्ण शर्मा नवीन, गोपाल प्रसाद व्यास, देवराज दिनेश, रघुवीर शरण, मित्र, श्री कृष्ण सरल, वीरेन्द्र मिश्र, श्री राम शर्मा प्रेम, रामकुमार चतुर्वेदी चंचल, बलबीर सिंह रंग, शिशुुपाल सिंह शिशु आदि ने श्रेष्ठ रचनाएंे देकर जनमानस में अमिट छाप छोड़ी।
वर्षों गुलामी की जंजीरों को तोड़कर हम मुक्त हुए थे, वे हमी थे जिन्होंने जन मंगल की कामना की थी, विश्व बन्धुत्व का पैगाम दिया था, पंचशील के हमी पक्षधर थे, समाजवादी रिश्ते के सूत्रधार के हिमायती हम हमेशा रहे लेकिन जब हमें किसी ने ललकारा तो हम शबनम से शोले हो गये कविवर रामानन्द दोषी की पंक्तियां जो आज भी अनुस्मृणीय हैं -
मस्त योगी हैं कि हम सुख देखकर सबका सुखी हैं
अजब मन है दुख देखकर सब का हम दुःखी हैं
लाश्य भी हमने किये हैं ताण्डव भी किये हैं
दूध मां का और चन्दन और केशर जो भी समझो
यह हमारी रज है हम इसके लिए हैं
इस दौर में अनेक आंधियां आई, पतझड़ आये, सीमा पर धोखे से हमें ललकारा गया। दोस्त खंजर लेकर शान्ति दूत बन कर आया और हम छले गये। चाहे वह 1962 का भारत-चीन यु( हो या 1965 की भारत-पाकिस्तान लड़ाई, जहां हमारी सेना ने रण कौशल का एक अद्वितीय इतिहास रचा। वहीं हमारे रचनाकार पीछे नहीं रहे। 20 अक्टूबर 1962 को जब भारत पर चीन ने आक्रमण किया तब महाकवि श्याम नारायण पाण्डेय ने देश की सोई शक्ति को जगाने के लिए यह हुंकार भरी थी -
 यह तुंग हिमालय किसका है?
 उतंुग हिमालय किसका है?
 भारत का यौवन गरज उठा
 जिसमें पौरूष है उसका है।
यहां यह उल्लेख करना आवश्यक है कि इस यु( से जनमानस विचलित तो हुआ पर उसका मनोबल नहीं  गिरने पाया। इस दौर में कवियों ने ऐसा शंखनाद किया कि पूरब-पश्चिम, उत्तर-दक्षिण सभी ओर आजादी की रक्षा की संकल्प चेतना जाग्रत हुई। रामधारी सिंह दिनकर तभी गरज पड़े थे- 'ओ गांधी के शांति सदन में आग लगाने वाले/ जनता जगी हुई है।'
यह समय ऐसा था जहां कवियों की वाणी से पूरा देश करवट बदल रहा था, जन-जन के अधरों पर कवियों की पंक्तियां गुनगुनाई जाती थी, बड़े सफल अखिल भारतीय कवि सम्मेलन आयोजित हुआ करते। इन सम्मेलनों में बड़े आदर के साथ बुलाये जाने वाले कवियों में सोहनलाल द्विवेदी, श्याम नारायण पाण्डेय, गोपाल दास नीरज, बलवीर सिंह रंग, देवराज दिनेश, रामावतार त्यागी, सोम ठाकुर, रामस्वरूप सिंदूर, संतोषानंद, राम कुमार चतुर्वेदी चंचल, अनन्त मिश्र, वीरेन्द्र मिश्र, बालकवि बैरागी, बेकव उत्साही, इन्द्रजीत तुलसी, गोपाल कृष्ण कौल, चन्द्रसेन विराट, मेघराज मुकुल, बालस्वरूप राही, शिशुपाल सिंह निर्धन, शेरजंग गर्ग, राजेश दीक्षित, दामोदर स्वरूप विद्रोही, ब्रजेन्द अवस्थी, वीर कुमार अधीर, कृष्ण मित्र, राम प्रकाश रादेश, धर्मपाल अवस्थी तथा कवित्रियों में सुमित्रा कुमारी सिन्हा, स्नेहलता स्नेह, ज्ञानवती सक्सेना, मधु भारती और निर्मल जोशी के नाम उल्लेखनीय हैं।
मुझे याद आते हैं 'साप्ताहिक हिन्दुस्तान' के तत्कालीन सम्पादक डा. बांके बिहारी लाल भटनागर जिन्होंने दिल्ली के सप्रू हाउस में एक वीर रस कवि सम्मेलन आयोजित किया था जिसकी अध्यक्षता  राष्ट्रकवि डा. रामधारी सिंह दिनकर ने की थी। उनका स्मरण आज भी हो जाता है। पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री जुल्फ़िकार अली भुट्टो ने घोषणा की थी कि वे हजार साल तक लड़ेंगे। कविवर देवराज दिनेश ने अपनी अभिव्यक्ति से उत्तर दिया था-
 दंभ है जिनको हजारों साल तक वे रण करेंगे,
 भूलते हैं वे/ कि मेरी बलवती बाहें
 हजारों साल की तो बात क्या
 कुछ साल से ज्यादा उन्हें रिपु रूप में रहनें न देंगे
 देश पर होंगे न्यौछावर ये करोड़ों शीश
 दंभ रिपु का ये सबल भुजदंड देंगे पीस।
उन्ही दिनों सोम ठाकुर का यह गीत बड़ा प्रसि( हुआ जिसको सुनने के लिए श्रोता आतुर होते थे-
 सागर चरण पखारे, गंगा शीश चढ़ावे नीर
 मेरे भारत की माटी चन्दन और अबीर
 सौ-सौ बार नमन करूं, मैं भैय्या सौ-सौ बार नमन करूं।
उस दौर में जितना भी काव्य सृजन हुआ उसमें मुख्यतः राष्ट्रवाद था इसका मुख्य कारण सैकड़ों वर्ष गुलामी से मुक्त हुए कुछ ही वष्र बीते थे। दूसरा कारण यह भी हो सकता है कि उस समय आदमी जीवन के प्रति अधिक ईमानदार था, हम अब मुश्किलों में भी अपनी आजादी संजोकर रखना चाहते थे, इसलिए गोपालदास नीरज को कहना पड़ा-
 ओ देश के जवानों, उठो जहां बदल दो
 सारी जमी बदल दो, सब आसमां बदल दो
 यह गुलसिंता बदल दो, यह बागवां बदल दो।
बीते समय की कुर्बानियों को याद कर बालकवि बैरागी कह उठे-
 कहां गई वो आग कि जिसमें शोणित सदा नहाता था
 कहां गई वो आग कि जिसमें महाप्रलय मुस्काता था
 परिवर्तन के पलने में जब अग्नि-वंश सो जाता है
 तो कालान्तर में अग्नि-वंश ही मेघवंश हो जाता है
इन्हीं दिनांे कुछ गीत बहुत लोकप्रिय हुए, सम्भवतः उनका रचनाकाल कुछ पहले का हो, लेकिन जनमानस में उनकी पहचान इन्हीं दिनों बनी, संवेदनाओं के घरों से चुराये गये शब्द जन-जन के अधरों से प्रायः गुनगुनाये जाने लगे। नीरज जी उन दिनों जीवन संघर्ष की नई पारी खेल रहे थे, असफलता, निराशा भरे कुहासे में लेखनी से जो शब्द बने वे जीवन के अमर गीत बन गये।
 स्वप्न झरे फूल से, मीत चुभे शूल से 
 लुट गए सिंगार सभी बाग के बबूल से
 और हम खड़े-खड़े बहार देखते रहे
 कारवां गुजर गया गुबार देखते रहे
आधुनिक कविता से लोगों का जुड़ाव टूटता चला गया, इसका मुख्य कारण है इसमें भाव से अधिक बु(ि का प्राबल्य है, जहां काव्य कला से द्रवणशीलता, मोहकता, सौन्दर्य बोध  विलुप्त होता चला गया वहीं कविता जीवन से कटती चली गई। जन-जन की भावनाओं को गीतों में प्रस्तुत करना यह अपने में अद्भुत कौशल है। उन्हीं दिनों पण्डित भवानी प्रसाद मिश्र का यह गीत भी बहुत लोकप्रिय हुआ जो जीवन की सत्यता का उजागर करता है-
 जी हां हजूर मैं गीत बेचता हूंॅ
 मैं तरह तरह के /गीत बेचता हूॅं
 मैं सभी किसम के गीत बेचता हूंॅ
  जी माल देखिये दाम बताऊंगा
  बेकाम नहीं, काम बताऊंगा
  कुछ गीत लिखे हैं मस्ती में मैंने
  कुछ गीत लिखे हैं पस्ती में मैंने
 यह गीत सख्त सरदर्द भुलायेगा
 यह गीत पिया को पास बुलायेगा
 जी पहले कुछ दिन शर्म लगी मुझको
 पर पीछे पीछे अक्ल जगी मुझको
 जी लोगों ने तो बेच दिये ईमान
 जी आप न हो सुनकर ज्यादा हैरान
  अपने गीत बेचता हूॅं
  जी हां हजूर मैं गीत बेचता हूंॅ
इन्हीं दिनों हिन्दी कविता में नवगीतों का दौर चला हिन्दी के अनेक लब्ध प्रतिष्ठित कवियों ने नव गीत लिखे, जिनको काव्य मंचो पर खूब सरहाया गया, कवि वीरेन्द्र मिश्र नव गीतों के प्रमुख कवि हुए, जिनको काफी लोकप्रियता मिली-
 लो अब गाता हूंॅ-
 कोई अन्धकार की चादर मेरी ओर बढ़ाये ना    जलता दीप है ये, इससे प्यार मुझको
 कोई खुशहाली पर खूनी आंख उठाए ना     मेरा देश है ये इससे प्यार मुझको
  मेरा देश है ये ......
साठ के दशक के अन्त तक शनै-शनै देश का राजनैतिक माहौल बदलने लगा, राजनीति भारतीय चिंतन को बदरंग करने लगी, जहां अब तक हर राजनैतिक दल मर्यादित भाषा में संवाद तथा विरोध का व्यवहार करता था लेकिन समय के साथ-साथ भाषा और व्यवहार का शील ताक पर रख दिया गया।
नेता उग्र भाषा को ही वीरता का लक्षण समझने लगे, मर्यादित मतभेद के स्थान पर समूल उच्छेद की भाषा और भावभंगिमा अपनायाी जाने लगी, समाज के भीतर घृणा, कटुता, टकराव और हिंसा को उभारा जाने लगा, भ्रष्टाचार नेताओं का जीवन मूल्य बन गया इसके प्रतिबिम्ब समाज में हर जगह दिखाई देने लगे। गलत तरीके से अर्जित धन से नई जीवन शैली का निर्माण होने लगा, ईमानदारी एवं सादगी का आदर्श जैसे शब्द अर्थहीन हो गये।
राष्ट्रीय सरोकार गौण हो गये, क्षेत्रीयता प्रमुख होने लगी, यही कचोट गांधीवादी राष्ट्रभक्त सोहनलाल द्विवेदी को विचलित कर देती है और वह 15 अगस्त के दिन झंडा फहराने वालों से कुछ सवाल पूछने को विवश हो उठते हैं-
 कल से बेहतर हो गए आज हैं हम कितने 
 ज्यादा मत पूछो हाल जले दिलवालों का
 पीछे झंडा फहराना ऐ झंडेवालों
 पहले जबाव दो मेरे चंद सवालों का
वे सत्ताधीशों को आगाह करते हैं:-
 मैं कहता हूं वे बुजदिल हैं, वे मुरदे हैं
 जो धर कर सिर पर हाथ, हाथ को मलते हैं
 जिनमें बेकाबू दर्द आग बन जाता है
 वे आंधी बन दुनिया समेट कर चलते हैं
 लेते हैं वे झंडा छीन निकम्मे हाथों से
 इतिहास नाम लिखता ऐसे मतवालों का
 पीछे झंडा फहराना ऐ झंडेवालों
 पहले जवाब दो मेरे चंद सवालों का
अस्तु साठ के दशक की कविता जन-जन के अन्र्तमन के भावों से रची गयी थी जन भाषा की सम्पूर्णता उसकी सृजन विधाओं की सम्पूर्णता है उसकी संप्रेषणता और प्रभाव को आज भी जनमानस में देखा जा सकता है इस समय की रचनाओं के माध्यम से भाषा की गरिमा में श्रीवृ(ि हुई है इसलिए कहा जा सकता है कि इस दौर की कविताएं अनन्तकाल तक जन-जन के मन को स्पर्श करती रहेंगी। हिन्दी के सुप्रसि( कवि मेघराज मुकुल के श्रीमुख से उनकी कविता 'सैनाणी' इसी दशक के अंत में सुनी थी जो मन की अनन्त गहराइयों को छू गयी उसका उल्लेख करना चाहूंगा।
 भूख मरूं अंतड़ियां छूजै कोइयां कांपै पलको सूजै,
 आला और दिवाला जौवूं लाल विलखता म्हैं कद रोऊं
 हाय गरीबी तू मत हार मिनखां री मत पाण उतार
 दाणां रो पड़ग्यौ काल दूधौ कियां पिलाऊं ओ लाल
 तन्नै कियां जियाऊं ओ लाल ...........


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